मौलिक कहानीकार, बेजोड़ अनुवाद
नीरज दइया
हमारे भीतर कुछ स्मृतियां इस तरह भीतर रहती हैं कि हम उनसे मुक्त होना चाहे न चाहे, उनका स्मरण करें चाहे न करें किंतु वे जैसे निरंतर हमारा स्मरण करती है। अपने पिता सांवर दइया की स्मृति और उनके अनन्य मित्र कन्हैयालाल भाटी की स्मृति मेरे जीवन का जैसे अभिन्न अंग है। पुत्र और मानस-पुत्र दोनों पदों में लौकिक अंतर चाहे जितना रहे, किंतु एक जगह पर यह अंतर लुप्त हो जाता है और इस विश्वास में जीना बेहद सुखद होता है कि वे हमारा स्मरण कर रहे हैं। अपने पूर्वजों का पुण्य-स्मरण निशंदेह कोई सुखद अहसास नहीं किंतु इस पीड़ा में आनंद अवश्य है…. पीड़ा में आनंद जिसे हो आए मेरी मधुशाला।
जीवन की इस मधुशाला में किसी भी बालक को होश कहां होता है जो मुझे होता। बेहोशी के ऐसे ही किसी आलम में मैंने जाना कि मेरे पिता के मित्र कन्हैयालाल भाटी किसी पोस्टकार्ड में यह स्नेहिल उपालंभ लिखते हैं कि बीकानेर आकर मिले क्यों नहीं और श्रीलाल मोहता को जैन कॉलेज में नौकर मिल गई है। यह समय वह समय था जब मैं मेरे परिवार के साथ नोखा में था और उन्हीं दिनों का स्मरण है कि “धरती कद तांई धूमैली” कहानी संग्रह को राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी बीकानेर का पुरस्कार मिला था। यह वह समय था जब रावत सारस्वत “राजस्थानी” की परीक्षाएं स्कूलों में आयोजित करवाते थे और कन्हैयालाल सेठिया मान्यता की अलख के लिए दोहे लिखा करते थे। उन दिनों हमारे बाबा छोटू नाथ विद्यालय के खेल शिक्षक डेलूजी हमें खेल-कालांश में अन्नाराम “सुदामा” के उपन्यास-अंश और भूमिका आनंद के साथ सुनाया करते थे। उन्हीं दिनों कभी कहीं मैं कन्हैयालाल भाटी से मिला हूं यह याद नहीं।
याद तो कुछ भी नहीं और भूला भी कुछ नहीं, यह दोनों एक साथ संभव है। भीतर सब कुछ है और जब खोजने लगता हूं तो जैसे कुछ नहीं या वह कुछ हाथ लगता है जो यहां आवश्यक नहीं। समय में एक छलांग लगा कर मैं हमारे पास-पास जमीन खरीदने के किस्से, खुद कन्हैयालाल भाटी की बीमारी और बेड रेस्ट, पारिवारिक कार्यों के विभिन्न अवसर। बहन अंजू की बीमारी और जयपुर की स्मृतियों से आगे निकल कर अपने पिता सांवर दइया की दांत की तकलीफ तक पहुंच जाता हूं। इस यात्रा के बीच के काफी किस्से-कहानियां किसी अवसर के लिए बचा कर रख छोड़े है। जीवन के लंबे अंतराल को कुछ वाक्यों या पृष्टों पर उतारना सहज कहां होता है। अंतस भीतर से इतना उलझनों से भरा है कि सारे किस्से एक दूसरे में लिपटे हैं। सब कुछ बाहर आने को बेसब्र। यहां धैर्य के साथ सबदों को संभलना पड़ेगा। पिता के नहीं रहने पर मैंने अपने करीब जिन को पाया उनमें एक नाम कन्हैयालाल भाटी का है। वे मेरे लिए एक मार्गदर्शक और सबसे अधिक मित्रवत भाव से इतने करीब आए कि लगता है उन जैसा इस संसार में कोई नहीं। कोई किसी के समान न तो होता है और न ही होना चाहिए।
शिविरा पत्रिका में रहते हमारी पारिवारिक प्रगाढता बढ़ी और हमने परस्पर एक दूसरे परिवारों को गंभीरता और गहराई से जाना-पहचाना। कहानीकार-अनुवाद कन्हैयालाल भाटी का अवदान राजस्थानी और हिंदी साहित्य में जितना है वह पूरा पहचाना नहीं गया। यहां मुझे मंगलेश डबराल की कविता संगतकार का स्मरण होता है। भाटी बीकानेर के साहित्य समाज में एक संगतकार के रूप में जीवनकाल में सदैव जिन मुख्य गायकों का साथ देते रहे उनका यह दायित्व बनता है कि उनके अवदान को रेखांकित करें। मौलिक कहानीकार के रूप में उनसे प्रभावित हुआ जा सकता है, वहीं उनके अनुवाद-कर्म से भी बहुत कुछ सीखा-समझा जा सकता है। सबसे अधित प्रभावित तो इस बात से होना चाहिए कि एक साहित्यकार को जीवन में जितना लिखना चाहिए उससे केई गुना उसका अध्ययन होना चाहिए। उनसे हमें प्रेरणा लेनी चाहिए कि भारतीय साहित्य का अधिकाधिक अध्ययन-चिंतन-मनन ही किसी साहित्यिक रचना के लिए खाद-पानी का काम करती है।
कन्हैयालाल भाटी एक आदर्श शिक्षक के रूप में जीवन काल में जितने लोकप्रिय रहे उससे कहीं अधिक उनकी कार्यनिष्ठता शिविरा के संदर्भ कक्ष के प्रभारी के रूप में देखी जा सकती है। कभी कभी मुझे आभास-सा होता है कि वे किसी पुस्तकालय के किसी कक्ष में अखबारों-पत्रिकाओं और पुस्तकों के ढेर में अब भी कुछ पढ़-लिख रहे हैं। किंतु खेद है कि आप और हम दुनिया के भूगोल पर अब उस जगह को कहीं नहीं खोज सकते।
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