किसी भी रचनाकार की लेखन-यात्रा का एक आरंभिक बिंदु होता है, किंतु उसे सरल-सहज रूप में खोजना अथवा स्पष्ट कर पाना बेहद कठिन कार्य है। मेरा तो यहां तक मानना है कि उस बिंदु को ठीक-ठीक ढूंढ पाना लगभग असंभव-सा ही होता है। लेखन-यात्रा के उस आरंभिक बिंदु की तलाश में कुछ बातें की जा सकती हैं। यह स्मृति-आलेख उस बिंदु की तलाश में ऐसा एक प्रयास है कि मैं मेरे साहित्यिक संस्कारों की आरंभिक पुस्तकों में से कथाकार श्री महेशचंद्र जोशी के बाल उपन्यास “मोम का घोड़ा” का स्मरण कर रहा हूं। कुछ किताबें और कुछ लेखक ही होते हैं, जो हम में साहित्यिक संस्कारों का कोई बीजारोपण करते हैं। अगर लेखन जन्मजात प्रवृति है तो निश्चय ही कुछ परिस्थतियां उसके उत्स का कारण बनती हैं।
मेरा सौभाग्य रहा कि मेरा जन्म एक लेखक के घर में हुआ। मेरे पिता स्व. सांवर दइया के जिन अंतरंग मित्रों को मेरा बाल-मन अब तक स्मृति में बसाए हैं उनमें सर्वश्री हरदर्शन सहगल, महेशचंद्र जोशी और गणेश मोदी प्रमुख हैं। उन दिनों की स्मृतियों में मुझे अनादिष्ट कला के पेंटर श्री के. राज द्वारा आयोजित ग्रीष्मकालीन चित्रकला शिविरों का स्मरण है। जहां लेखकीय झोला लटकाए मैंने अपने पिता को देखा, उनके साथ के मित्रों में श्री महेशचंद्र जोशी थे जिनकी पुस्तक “मोम का घोड़ा” मुझे उपहार स्वरूप मिली।
मैं कथाकर महेशचंद्र जोशी से अनेक बार मिला और सदैव उनके स्नेह का स्पर्श भीतर तक किया। कुछ लेखकों के विषय में यह सत्य है कि उनको उनके कद के हिसाब से साहित्य की पंक्ति में खड़ा नहीं किया जाता। जोशी जी जैसे कुछ लेखक अपने संकोच के चलते अथवा स्वांत-सुखाय के आस्वाद के रहते भी इस पंक्ति में खड़े हुए होने के बावजूद हिंदी आलोचना द्वारा देखे नहीं गए हैं। जोशी जी की बीस के लगभग कथा-साहित्य की पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है और अनेक पुस्तकें अप्रकशित हैं। उनके चर्चित कहानी संग्रहों में प्रमुख है- ‘मेरा घर कहां है’, ‘मुझे भूल जाओ’, ‘तलाश जारी है’ आदि। उपन्यासों में “नशा” उपन्यास की चर्चा हुई है, किंतु बाल उपन्यास “मोम का घोड़ा” पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया गया है।
वरिष्ठ कथाकार श्री महेशचंद्र जोशी 24 मई, 2012 रविवार की रात्री इस संसार को अलविदा कह गए। जोशी जी लंबे समय से अस्वस्थ चल रहे थे, किंतु वे हमेशा शब्दों की दुनिया में डूबे रहेते थे। उन्होने कहानियां लिखते-पढते हुए कभी अपनी बीमारी को इतनी गंभीरता से नहीं लिया। किसी को क्या पता था कि वे असमय इस तरह अलविदा कह जाएंगे। मैं नौकरी के सिलसिले में बीकानेर से लगातार बाहर रहा और जब अपने घर बीकानेर वापस लौटा हूं तो उनकी कमी भीतर कहीं अखर रही है। मेरा मोम का घोड़ा नहीं रहा। मुझे अपने बचपन के वे दिन याद आते हैं जब जोशी जी हमारे पैतृक आवास जेल रोड साईकिल से आते थे और पापा की बजाय जब भी मुझ से मुलाकात होती तो कहा करते थे- “पापा को कहना कि मोम का घोड़ा आया था।” यह वह दौर रहा होगा जब उनको शक था कि मैं महेशचंद्र जोशी नाम याद नहीं रख सकूंगा अथवा यह उनका अत्यधिक स्नेह रहा होगा जिसके रहते खुद उन्होने अपना नाम मोम का घोड़ा निकाल लिया था।
महाकवि तुलसीदास जी की भांति वैसे तो मैं अपने उस पाठकीय आस्वाद के विषय में यही कहूंगा कि बिना मोम का घोड़ा उपन्यास पढ़े आप उस आस्वाद का अनुभव कर ही नहीं सकते जो वास्तव में है। रचना का पाठ और उस पाठ का काल विशेष भी उस पाठ के आस्वाद को प्रभावित करते हैं। बाल्यकाल में पढ़ी उस कृति का रोमांचक प्रभाव आज अगर पुनर्पाठ करूं तो संभव है नहीं हो सकेगा। जैसे किसी एक नदी में हम दूसरी बार स्नान नहीं कर सकते उसी प्रकार हर पाठ का आस्बाद समान नहीं होता।
मोम का घोड़ा का कथानक आज तो मुझे किसी लोक आख्यान सा प्रतीत होता है। इसमें राजा-रानी की सीधी सरल बाल मनोवैज्ञानिक आधार लिए रोचक कहाणी चलती है। राजा का पुत्र मोम का घोड़ा लेकर उड़ा और लौट कर नहीं आया, वह विध्न बाधाओं को पार करता एक नई कहानी रचता कथा के अंत में प्रगट होकर सब कुछ सुखांत कर देता है।
मुझे लगता है कि किसी रचना में आलोचना अपने मानकों के आधार पर रचना के साथ अक्सर शुष्क व्यवहार ही करती है, किंतु रचना का मर्म और प्रभाव पाठक ही पकड़ पाता है। मैं मेरे उस बाल्यावस्था के पाठक को कहीं भीतर अब भी संजोए सहेजे हूं कि बाल उपन्यास मोम का घोड़ा का स्मरण अब भी ताजा और स्नेह से सराबोर निजता लिए हुए है। क्या यह किसी कृति की सफलता नहीं है कि उस का स्मरण हमें लंबे समय तक रहे? हिंदी बाल उपन्यास यात्रा की जिन कृतियों को मैं आस्वाद कर सका हूं उन में अब तक मुझे सर्वश्रेष्ठ कृति के रूप में बयान देना का अवसर मिले तो मैं श्री महेशचंद्र जोशी के मोम का घोड़ा को ही याद करना चाहूंगा। इस उपन्यास की सरल सहज भाषा और कथानक में कौतूहल का घटक अब प्रभावशाली प्रतीत होता है। उपन्यास की संवेदना में बालमन डूब सा जाता है। उपन्यास को एक बैठक में पढ़ने का कीर्तिमान तो बनाया ही था साथ ही साथ इसे अनेक बार पढ़ने का आनंद भी मैंने लिया था। राजस्थान के बाल उपन्यासों में निश्चय ही मोम का घोड़ा कालजयी कृति है जो वर्षों तक याद की जाती रहेगी।
किसी लेखक की निधि उसका परिवार और परिजन होते हैं। यह हर्ष की बात है कि उनकी पुत्री रंगकर्मी मंदाकिनी जोशी निश्चय ही इस शब्द-यात्रा को सहेजने का कार्य करेंगी। मेरी कामना है कि जोशी जी की अप्रकाशित रचनाएं शीघ्र साहित्य-जगत के समक्ष आए और “मोम का घोड़ा” बाल उपन्यास का पुनर्मुद्रण कोई प्रकाशक कर इसे इक्कीसवीं शताब्दी के बाल पाठकों को सहज सुलभ कराए ।
डॉ. नीरज दइया