रेत में नहाया है मन

Cover Neeraj Daiyas BOOK
जनकावि श्री हरीश भादानी को समर्पित “रेत में नहाया है मन” (राजस्थानी के 51 चयनित कवियों की कविताओं का हिंदी-अनुवाद) संपादक-अनुवादक : डॉ. नीरज दइया
पृष्ठ : 256
संस्करण : 2019
मूल्य : 375/-
प्रकाशक : ज्ञान गीता प्रकाशन, एफ-7, गली नं. 1, पंचशील गार्डन, एक्स, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
आवरण : कुंवर रवीन्द्र जी।


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आज की राजस्थानी कविता अपने समय की कविता है। जब हम माटी की गंध और उसके संघर्ष की बात करते हैं, विशेषकर स्वतंत्रता के बाद, तो देखते हैं कि राजस्थानी भाषा के कवियों ने बदलते समय और समाज को उसके यथार्थ के साथ अपनी कविता में अभिव्यक्त किया है।

इस काव्य-यात्रा में वरिष्ठ कवियों नारायणसिंह भाटी, सत्यप्रकाश जोशी, हरीश भादानी से लेकर अर्जुनदेव चारण, आईदानसिंह भाटी, अंबिका दत्त व ठेठ युवा कवि ओम नागर, मदन गोपाल लढ़ा, राजूराम बिजारणिया तक की पीढ़ियां एक साथ सतत रचनाशील है। रेत की किरकिर, सूखते खेत, जीवन के लिए जूझते लोगों के अतिरिक्त एक ऐसी सौंधी गंध जो सिर्फ यहीं की धरती की उपज है, को इस कविता-यात्रा में साफ देखा जा सकता है।

जीवन के चौफेर संघर्ष को उकेरती ‘रेत में नहाया है मन’ की कविताएं मानवीय संवाद की कविताएं हैं। इनमें श्रम की बूंदें हैं तो रेत का उत्सव भी। आदमी की पीड़ है तो मुखौटे बदलता उसका चेहरा भी। आज के इस मुखौटे की आहट सत्यप्रकाश जोशी ने बहुत पहले सुन ली थी- “ला, मेरा मुखौटा दे थोड़ा बाहर जाता हूं।/ अंग्रेजी के कुछ शब्द डाल दे बटुवे में/ … मुझे आदमी का भ्रम बना दे, मैं बाहर जाता हूं।” और शारदा कृष्ण की ये पंक्तियां- “क्या होगा उस दिन/ जब किसी आई-डी प्रूफ के बिना/ आदमी आदमी न गिना जाएगा।”

जीवन के हर पक्ष का संघर्ष है राजस्थानी कविता में। स्त्री, दलित, रेत, हेत व शोषण। रामस्वरूप किसान यथार्थ को कुछ इस तरफ देखते हैं- ‘‘पशुओं का गोबर-मूत्र/ बुहारता है आदमी/ क्योंकि/ उनके हाथ नहीं/ आदमी का मल-मूत्र/ उठाता है आदमी/ क्योंकि हाथ और दिमाग वाले/ पशु भी बहुत हैं यहां।’’ मुकुट मणिराज की कविता उस दलित का आत्मकथ्य है जो आहिस्ता से दृढ़ता के साथ शोषण के खिलाफ खड़ा हो रहा है। और स्त्री? मदन गोपाल लढ़ा के शब्दों में- “तुरपाई करती औरत/ जीवन के पक्ष में/ एक बड़ा सत्याग्रह है।”

‘रेत में नहाया है मन’ संग्रह की तमाम कविताएं जीवन के पक्ष में खड़ी कविताएं हैं। वे उस संघर्ष में शामिल है जो आदमी को आदमी बनाए रखने के लिए लड़ा जा रहा है। कविता संघर्ष में भागीदार ही नहीं  चेताती भी है- ‘‘चेतो/ चेतो कि तुम्हारी छाती पर कुंडली मार नथुनों के पास/ फन साधे/ बैठा है पीवणा सांप/ पी रहा- भाषा, भरोसा और सांस।” (तेजसिंह जोधा)

राजस्थानी कविता की अपनी एक गंध है जो इस संग्रह में देखी जा सकती है। इसके कारण यह हिंदी ही नहीं अन्य भारतीय भाषाओं से भी अलग है।

सजग कवि, आलोचक व अनुवादक डॉ. नीरज दइया ने आधुनिक राजस्थानी के सभी महत्त्वपूर्ण कवियों की श्रेष्ठ कविताओं का चयन कर बेहतरीन अनुवाद किए हैं। निश्चत रूप से हिंदी में इसकी गूंज गहरे तक जाएगी।

– डॉ. सत्यनारायण

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BOOK  Pdf Rait mein Nahaya man final – Dr Neeraj Daiya

राजस्थानी कविता का विहंगम आकाश / डॉ. मदन गोपाल लढ़ा

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