नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)

WhatsApp Image 2020-09-21 at 4.58.09 PMनन्द जी से हथाई (साक्षात्कार) संपादक : डॉ. नीरज दइया , समय, समाज और साहित्य के सवालों पर नन्द भारद्वाज ने इस कृति में बहुत विस्तार से चर्चा की है।
संस्करण : 2020 ; पृष्ठ : 200 ; मूल्य : 250/- ; प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर (राजस्थान) ई-मेल : bodhiprakashan@gmail.com

संवाद जो पुस्तक में शामिल हो सके हैं-
1. साहित्य जीवन का एक सहज और जरूरी कर्म है (डॉ. अलका जैन की बातचीत)
2. बेहतर जीवन का सपना संजोए रखना बड़ी बात है (किशोर चौधरी की बातचीत)
3. लेखन अभिव्यक्ति का एक विश्वसनीय माध्यम है (डॉ. पद्मजा शर्मा की बातचीत)
4. जनसंचार की निष्पक्षता लोकतंत्र का मूल आधार है (रेवतीरमण शर्मा की बातचीत)
5. साहित्यि सामाजिक बदलाव का माध्यम है (डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल की बातचीत)
6. लेखक अपने समय के सवालों पर नजर रखता है (निवेदिता शकील के साथ बातचीत)
7. वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर फोकस जरूरी है (नंदिनी रॉय की बातचीत)
8. साहित्य का वर्तमान परिदृश्य और मीडिया (वंदना सिंह की बातचीत)
9. साहित्य-विकास के लिए अनुकूल वातावरण जरूरी है (दुष्यंत की बातचीत)
10. साहित्य-लेखन लेखक के जीने का तरीका होता है (श्याम जांगिड़ की बातचीत)
11. भाषा की असल शक्ति लोक से पहचानी जाती है (संजय बोहरा की बातचीत)
12. भाषा सृजन का आधार और पहचान होती है (दुलाराम की बातचीत)
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नंदजी से हथाई

नंद भारद्वाज सृजन की दुनिया में लगभग पांच दशक से सक्रिय हैं। उन्होंने हिन्दी- राजस्थानी दोनों भाषाओं और करीबन सभी विधाओं में लिखा है। तीन दशक से अधिक समय वे आकाशवाणी- दूरदर्शन से सम्बद्ध रहे हैं और मूर्धन्य लोगों के साक्षात्कार लेने के लिए जाने जाते हैं। प्रस्तुत संचयन उनसे लिए साक्षात्कारों का है जिसे नीरज दइया ने संपादित किया है और उल्लेखनीय यह है कि नंद जी की सहधर्मिणी रुकमनी जी को समर्पित किया है। दइया ने संचयन की भूमिका में नंद जी की आरंभिक जीवन यात्रा और लेखन का प्रोफाइल प्रस्तुत किया है जिसके संदर्भों की आवृत्ति आगे लगभग हर दूसरे साक्षात्कार में होती रहती है।

वैसे तो साहित्य की प्रत्येक विधा पाठक- सापेक्ष है, पर मुझे लगता है, संस्मरण और साक्षात्कार कुछ ज्यादा ही पाठक सापेक्ष होते हैं। इनके मार्फत हम सम्बंधित रचनाकार के बारे में कुछ नया और अन- उद्घाटित जानना चाहते हैं। जब किसी संस्मरण अथवा साक्षात्कार में ऐसा कुछ नहीं मिलता तो निराशा होती है। नंद जी के साक्षात्कारों का यह संचयन ऐसे पाठकों के लिए बहुत काम का है जो उनके जीवन व विचारों के बारे में अनभिज्ञ हैं अथवा कम जानते हैं। मेरे जैसे व्यक्ति के लिए वहाँ ऐसा बहुत कम है जो मुझे पहले से मालूम नहीं है। जाहिर है कि संचयन केवल मुझ जैसों के लिए तो है नहीं।
तथापि कुछ नयी बातें तो पता चलीं।‌ गीत- संगीत में उनकी दिलचस्पी के बारे में मालूम था लेकिन वे गायक भी रहे हैं, यह नहीं पता था। २००७ में कवास- माडपुरा में जो बाढ जैसी हालत पैदा हो गयी थी, उसी कवास के निकट नंदजी का गाँव है और कवास में उन्होंने आरंभिक शिक्षा पायी थी। जब रेतीले इलाके में यह अप्रत्याशित आपदा आयी, तब नंदजी जयपुर दूरदर्शन पर थे। उन्होंने इस आपदा को कवरेज दिया लेकिन बाढ से निपटने के सभी सरकारी प्रयास व्यर्थ साबित हुए, रेतीले धोरों ने ही शनै: शनै: पानी को सोख लिया।

आप जब रचना के क्षेत्र में होते हैं तो आपकी विभिन्न रचनाकारों को लेकर कुछ जिज्ञासाएंं होती हैं, लेखक विशेष से जुड़े अन्तर्विरोधों को लेकर सवाल होते हैं और परिदृश्य पर उसके नजरिये को जानना चाहते हैं। उन्हें जानने वालों को मालूम है कि नंदजी एक समय मुक्तिबोध से बहुत प्रभावित रहे हैं। दइया जी ने भी अपनी भूमिका में इस बात का उल्लेख किया है। नंदजी ने कई जगह नामवर जी के निर्देशन में मुक्तिबोध की रचना प्रक्रिया पर पीएचडी करने का जिक्र किया है। लेकिन इससे जुड़े सवाल नदारद हैं, वे खुद भी इस प्रसंग में ज्यादा कुछ नहीं कहते। हिन्दी में नंदजी का पहला कविता- संकलन था- झील पर हावी रात। इसी शीर्षक की इसमें एक लंबी कविता थी जो मुक्तिबोध की फेन्टेसी शैली में लिखी गयी थी। सामान्यतः कवियों के कैरियर में ऐसी रचनाएँ मील के पत्थर की तरह हो जाती हैं। लेकिन नंदजी के संदर्भ में उस पर कोई विशेष बातें नहीं हैँ।

साहित्य अकादमी पुरस्कार को लौटाने और वापस ले लेने पर भी इन १२ साक्षात्कारों में किसी ने कोई सवाल नहीं पूछा है। अपनी भूमिका में नीरज दइया ने खुदी इस सवाल को उठाकर उसका जबाव भी दे दिया है। जयपुर लिटरेरी फेस्टिवल से उनके जुडाव को दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने प्रश्नित जरूर किया है पर वे कोई प्रति- प्रश्न नहीं करते। बल्कि दुर्गाप्रसाद जी वाला साक्षात्कार तो एक तरह का संवाद ही है। यह दिलचस्प है कि कार्पोरेट की भूमिका और उसमें निहित खतरों व बाजार के वर्चस्व को भली- भाँति समझने वाले नंद भारद्वाज को इनसे जेएलएफ का कोई कनेक्शन नज़र नहीं आता। निवेदिता शकील, पद्मजा और नंदिनी राय से बातचीत में आप इसे लक्षित कर सकते हैं।

उनके रचना कर्म पर भी सामान्यतः सरसरी चर्चा है। कविता को अपनी प्रिय विधा मानने वाले नंदजी ने कविताएँ अपेक्षाकृत कम लिखी हैं। दइया ने ही लिखा है कि २०१६ में आये उनके संकलन आगे अंधारौ में कुछ कविताएँ पिछले संकलन अंधार पक्ष से भी पुनर्प्रकाशित हैं। इसी तरह हरी दूब का सपना में भी कुछ कविताएँ झील पर हावी रात से हैं। यह कोई अपराध नहीं है लेकिन सवाल तो बनते हैं। हिन्दी और राजस्थानी में उन्हें तुलनात्मक रूप में भी नहीं देखा गया है। इससे जुड़े प्रश्न ठोस तथ्यों पर आधारित नहीं हैं। उनसे पूछे गये सवाल वैसे हैं जिन्हें समाज विज्ञानों से संबंधित अध्ययनों में लीडिंग क्वेश्चन कहा जाता है, जिनके उत्तर तयशुदा होते हैं। हालांकि श्याम जांगिड, दुष्यन्त और दुलाराम सहारण के साक्षात्कार अधिक सहज और जीवन्त हैं।

इन साक्षात्कारों में सबसे प्रभावी रूप उनका लोक प्रसारण के संदर्भ होता है जहाँ उन्होंने अपनी पहल और अन्तर्दृष्टि से उल्लेखनीय काम किये। इस क्रम में वे कुबेर दत्त, लीलाधर मंडलोई और प्रभु जोशी जैसे सृजनात्मक कार्यक्रम निर्माताओं की कतार में आते हैं। वहाँ जवाहर चौधरी जैसे लोगों की संख्या दुर्भाग्य से कम रही है। इन माध्यमों से राजस्थान के अचलों को जोडने के नंद भारद्वाज के प्रयासों के तो हम बहुत लोग गवाह रहे हैं।

#पढते-पढते/ ७३ / राजाराम भादू

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